नारदजी का पूर्व चरित्र
नारदजी व्यासजी से अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हैं । कहते हैं - सत्संग
से जीवन कैसे सुधरता है। निष्काम सेवाभाव से जीवन में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता
है । मैं पूर्व कल्प के जन्म में दासी पुत्र था । आचार-विचार का कुछ भान न
था । मैनें चार मास कन्हैया की कथा सुनी । संतों की निष्काम सेवा की जिससे सद्गुरु की कृपा प्राप्त हुई । और जीवन
बदल गया ।
व्यासजी नारदजी
से कहते हैं – कृपया अपने पूर्व जन्म की कथा विस्तार से कहिए । नारदजी
बताते हैं – मैं सात-आठ साल का था जब मेरे पिता की मृत्यु हो गई । मेरी माता ब्राह्मणों
की सेवा का काम करती थी । मैं बालकों के साथ खेलता रहता था । एक बार हमारे गाँव
में घूमते फिरते साधु आए । गाँव के लोगों
ने उनसे चातुर्मास्य गाँव में बिताने का अनुरोध किया । मेरे पुण्य का उदय हुआ । मुझे
उनकी सेवा मे रहने को कहा गया । यद्यपि मै बालक था फिर भी मन में चंचलता नही थी और
कम ही बोलता था ।
संतो को कम
बोलना पसंद है । बड़ो के सामने कम बोलो । कम बोलने से शक्ति संचय होती है ।
मैं संतों के
साथ रहकर जो बनता प्रेमभाव से आज्ञानुसार उनकी सेवा करता तथा बर्तनों मे जो संतों
का जूँठन बचता उसे उनकी अनुमति से खा लेता । संतों का जूँठन प्रसादी होता है और
उसे उनकी अनुमति के बिना ग्रहण नही करना चाहिए । गुरूजी ने मेरा नाम हरिदास
रखा।
निष्काम सेवा व
सत्संग का फलः-
नारदजी कहते हैं
- इस प्रकार सेवा के साथ-साथ संतों के दर्शन व उनकी प्रसादी खाने का भी लाभ मुझे
मिला । इससे मेरे सारे पाप धुल गए और मेरा हृदय शुद्ध हो गया – सकृतस्म भुंजे
तदपास्तकिल्बिषः । उनके भजन पूजन को देखकर मेरी भी रुचि उसमें हो गई । श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनते-सुनते मेरी रुचि
उनकी भक्ति में हो गई – प्रियश्रवस्यंग ममाभवद्रुचिः । कथा मे मुझे ऐसा
आनंद आने लगा कि खेलना ही छूट गया ।
सेवा करने वाले
पर संत कृपा करते हैं । संत जिसे बार बार निहारते हैं उसका जीवन सुधरता है । जप
करते समय जिस शिष्य की याद आए उसका कल्याण होता है । गुरूजी मेरी निश्छल सेवा से प्रसन्न
थे । गुरुदेव की मुझपर विशेष कृपा हुई । जाते समय महात्माओं ने मुझे भगवान के
श्रीमुख से कहे गए गुह्यतम ज्ञान का उपदेश दिया – ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षात् भागवतोदितम् । वासुदेव गायत्री का मंत्र दिया । इस मंत्र का हमेशा जप
करो ।
नमो भगवते
तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रद्युम्नाय
निरुद्धाय नमः संकर्षणाय च ।।1.6.37।।
महापुरुषों ने
सही कहा है कि –
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि यस्य
वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम् ।।